न्यूज़ीलैंड की राजनीति में इन दिनों एक बेहद संवेदनशील और विवादास्पद मुद्दे पर बहस तेज हो गई है। न्यूज़ीलैंड की पॉपुलिस्ट पार्टी ‘न्यूज़ीलैंड फर्स्ट’ ने एक ऐसा बिल संसद में पेश किया है, जो यदि पारित हुआ, तो ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए गंभीर कानूनी और सामाजिक नतीजे लेकर आ सकता है। इस विधेयक का उद्देश्य पुरुष और महिला की परिभाषा को केवल बायोलॉजीकल आधार पर तय करना है।
इसका सीधा मतलब है कि यदि कोई व्यक्ति जैविक रूप से पुरुष जन्मा है, तो चाहे उसने ट्रांजिशन करा भी लिया हो, कानूनन वह महिला नहीं मानी जाएगी। यही बात ट्रांस पुरुषों पर भी लागू होगी।
न्यूज़ीलैंड में अब तक ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को उनकी पहचान के आधार पर कानूनी मान्यता दी जाती रही है। पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, और जन्म प्रमाणपत्र में लिंग पहचान को अपडेट करवाना कानूनी रूप से संभव है। लेकिन यदि यह नया बिल कानून बनता है, तो यह सारे अधिकार खत्म हो सकते हैं।
हालांकि, इस बिल के कानून बनने की संभावना अभी कम है, क्योंकि यह Private Member’s Bill है और इसे संसद के बैलेट में से चुना जाना होगा। इसके बाद भी, इसे बहुमत का समर्थन चाहिए होगा, जो वर्तमान राजनीतिक समीकरणों में मुश्किल लगती है।
न्यूज़ीलैंड फर्स्ट के नेता और देश के उप प्रधानमंत्री विंस्टन पीटर्स ने कहा है कि “कानूनों को जैविक सच्चाई को प्रतिबिंबित करना चाहिए और कानूनी स्पष्टता प्रदान करनी चाहिए।” उनका मानना है कि वैश्विक स्तर पर अब ‘कॉमन सेंस’ की वापसी हो रही है और उनकी सोच सही साबित हो रही है।
ट्रांसजेंडर्स कम्यूनिटी पर क्या बुरे प्रभाव पड़ेंगे?
अगर यह बिल कानून बनता है, तो इसके प्रभाव कई स्तरों पर ट्रांसजेंडर्स को प्रभावित करेंगे जैसे –
ट्रांसजेंडर्स के पास अभी अपनी लिंग पहचान को सरकारी दस्तावेज़ों में बदलने का हक है। यह बिल उस अधिकार को छीन सकता है। कई संस्थानों ने ट्रांसजेंडर-समावेशी नीतियाँ अपनाई हैं। यह कानून उन नीतियों को कानूनी चुनौती देने का रास्ता खोल सकता है।
अगर लिंग को सिर्फ जैविक आधार पर परिभाषित किया गया, तो ट्रांस महिलाओं को महिला वॉर्ड में भर्ती होने, महिला डॉक्टर से मिलने या महिला-विशेष सेवाओं का लाभ लेने से रोका जा सकता है।
पहचान की अस्वीकृति ट्रांसजेंडर समुदाय के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती है। अध्ययन बताते हैं कि लिंग पहचान को नकारे जाने से डिप्रेशन, आत्महत्या की प्रवृत्ति और सामाजिक अलगाव में वृद्धि होती है।
ट्रांस अधिकार संगठनों ने इस बिल की कड़ी आलोचना की है। उनका कहना है कि यह ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की मानवीय गरिमा और अधिकारों का हनन है। दूसरी ओर, कुछ रूढ़िवादी गुट और ‘जेंडर क्रिटिकल’ विचारधारा वाले लोग इसे “जैविक सच्चाई की रक्षा” के रूप में देख रहे हैं।
न्यूज़ीलैंड का मानवाधिकार कानून भेदभाव के खिलाफ सख्त है। यदि यह बिल पास होता भी है, तो इसके खिलाफ संवैधानिक चुनौती दी जा सकती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न्यूज़ीलैंड संयुक्त राष्ट्र के कई मानवाधिकार समझौतों का हिस्सा है, जिनमें ट्रांसजेंडर अधिकारों की रक्षा की बात की गई है।
हाल के वर्षों में कई पश्चिमी देशों में ट्रांस अधिकारों को लेकर बहस तेज हुई है। अमेरिका के कुछ राज्यों ने स्कूलों में ट्रांसजेंडर बच्चों के खेलों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया है। ब्रिटेन में भी ‘जेंडर रिफॉर्म’ पर राजनीतिक टकराव देखने को मिला है। यह विधेयक भी उसी प्रवृत्ति का हिस्सा है, जहां जैविक बनाम पहचान की बहस मुख्यधारा में आ रही है।
यह विधेयक केवल शब्दों की परिभाषा का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह असल में उन हज़ारों लोगों की पहचान, गरिमा और अस्तित्व पर सवाल है, जो ट्रांसजेंडर हैं। ट्रांस अधिकारों की लड़ाई महज़ कानूनों की नहीं, बल्कि समाज की संवेदनशीलता की परीक्षा है। इस बिल ने एक बार फिर यह दिखा दिया है कि आज भी बायोलॉजीकल आइडेंटिटी की बहस अधूरी है, और ट्रांसजेंडर समुदाय को अपनी जगह पाने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना होगा।