नई शिक्षा नीति और थ्री लैंग्वेज फॉर्मूले को लेकर तमिलनाडु में फिर विवाद गहरा गया है। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन के बाद अभिनेता कमल हासन ने आरोप लगाया है कि तमिलनाडु पर ‘हिंदी थोपने’ की कोशिश की जा रही है।
वैसे तमिलनाडु में हिंदी विरोध का इतिहास गहरा और संघर्षपूर्ण रहा है, जो राज्य की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान की रक्षा के लिए किए गए आंदोलनों से परिपूर्ण है। वर्तमान में, हिंदी और परिसीमन के मुद्दों पर तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच तनाव बना हुआ है, जिसमें मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन द्वारा ‘हिंदी थोपे जाने’ के विरोध के पीछे ऐतिहासिक और राजनीतिक कारण प्रमुख हैं।
तमिलनाडु में हिंदी विरोध का इतिहास
1937 – 40 का आंदोलन
साल 1937 में, मद्रास प्रेसीडेंसी में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सरकार ने सी. राजगोपालाचारी के नेतृत्व में स्कूलों में हिंदी के अनिवार्य शिक्षण की पहल की। इस कदम का द्रविड़ कषगम (डीके) और उसके नेता ई.वी. रामासामी ‘पेरियार’ ने कड़ा विरोध किया। आंदोलन के दौरान विरोध मार्च, नारेबाजी और पथराव जैसी घटनाएं हुईं, जिनमें दो लोगों की मृत्यु हुई और कई गिरफ्तारियां हुईं। आखिरकार, 1939 में कांग्रेस सरकार के इस्तीफे के बाद, इस निर्णय को रद्द कर दिया गया।
1965 का आंदोलन
फिर साल 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित होने के बाद, हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के प्रयास तेज हुए। तमिलनाडु में इस निर्णय के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए, जिनमें छात्रों ने सक्रिय भूमिका निभाई। तिरुचि के चिन्नासामी ने आत्मदाह किया, जिससे आंदोलन और भड़क उठा। इस दौरान लगभग 70 लोग मारे गए और कई घायल हुए। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हस्तक्षेप करते हुए आश्वासन दिया कि अंग्रेजी का उपयोग जारी रहेगा, जिससे आंदोलन शांत हुआ।3. वर्तमान परिप्रेक्ष्य
हाल के वर्षों में, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रस्तावित तीन-भाषा सूत्र के माध्यम से हिंदी को थोपने के प्रयासों का तमिलनाडु में विरोध हुआ है। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने स्पष्ट किया है कि यदि केंद्र सरकार हिंदी थोपने का प्रयास नहीं करती है, तो राज्य सरकार हिंदी का विरोध नहीं करेगी। उन्होंने कहा, “अगर आप नहीं थोपेंगे तो हम विरोध नहीं करेंगे।”
हिंदी थोपे के विरोध के पीछे प्रमुख कारण
- तमिलनाडु की जनता अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति गर्व महसूस करती है। हिंदी को अनिवार्य करने के प्रयास को वे अपनी पहचान पर आक्रमण के रूप में देखते हैं।
- हिंदी थोपने के प्रयासों को केंद्र सरकार की ओर से राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है, जिससे राज्य की स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लगता है।
- हिंदी को अनिवार्य करने से गैर-हिंदी भाषी छात्रों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है, जिससे उनकी शैक्षणिक प्रगति और रोजगार के अवसर प्रभावित हो सकते हैं।
परिसीमन आयोग जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण करता है। जनसंख्या वृद्धि के कारण हिंदी भाषी राज्यों की सीटों में वृद्धि हो सकती है, जिससे दक्षिणी राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु, की संसदीय प्रतिनिधित्व में कमी आ सकती है। इससे हिंदी भाषी राज्यों का राजनीतिक प्रभाव बढ़ेगा, जो तमिलनाडु के लिए चिंता का विषय है।
तमिलनाडु में हिंदी विरोध का इतिहास राज्य की भाषाई और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए किए गए संघर्षों का प्रतीक है। वर्तमान में, हिंदी थोपने और परिसीमन के मुद्दों पर राज्य और केंद्र के बीच मतभेद जारी हैं। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन का विरोध राज्य की स्वायत्तता, सांस्कृतिक पहचान और राजनीतिक संतुलन की रक्षा के लिए है, जो तमिलनाडु की जनता की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है।