25 फरवरी 1964 की वो रात। मियामी बीच, फ्लोरिडा का कन्वेंशन सेंटर खचाखच भरा हुआ था। हर किसी की नज़र रिंग के बीचों-बीच खड़े दो मुक्केबाज़ों पर थी। एक ओर थे सन्नी लिस्टन, वो खूँखार चैंपियन जिनके मुक्कों ने बड़े-बड़े दिग्गजों को चित कर दिया था। और दूसरी ओर था एक 22 साल का नौजवान, जिसकी ज़ुबान तलवार से तेज़ थी और जिसकी चाल बिजली से भी फुर्तीली। वो नौजवान था कैसियस क्ले, जिसे कुछ ही सालों बाद दुनिया मोहम्मद अली के नाम से जानने वाली थी।
लेकिन क्या किसी ने सोचा था कि वो लड़का, जिसे मैच से पहले बड़बोला, बेअक़्ल, और नौसिखिया कहा जा रहा था, उसी रात बॉक्सिंग की दुनिया में एक नई क्रांति लाने वाला था? शायद नहीं। लेकिन अली को खुद पर भरोसा था।
मुक़ाबले से पहले जब पत्रकारों ने अली से पूछा कि लिस्टन से लड़ने की उसकी क्या योजना है, तो उसने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में जवाब दिया…”मैं तितली की तरह उड़ूँगा और मधुमक्खी की तरह डंक मारूँगा!”
कई लोगों ने इसे महज़ उसकी डींग समझा, लेकिन जब मैच शुरू हुआ, तो हर किसी की आँखें खुली की खुली रह गईं। पहले ही राउंड से अली ने अपनी तेज़ रफ़्तार और शानदार फुटवर्क से लिस्टन को चौंका दिया। लिस्टन भारी भरकम थे, उनके मुक्के हथौड़े जैसे थे, लेकिन वो अली को पकड़ ही नहीं पा रहे थे। दूसरी ओर, अली हल्का था, तेज़ था, और उसका हर पंच निशाने पर लग रहा था।
छठे राउंड तक आते-आते, लिस्टन का चेहरा सूज चुका था, उनकी आँखों के नीचे गहरे घाव थे। सातवें राउंड की घंटी बजने से पहले ही लिस्टन ने मैच से हटने का ऐलान कर दिया और इस तरह, 22 साल के मोहम्मद अली दुनिया के सबसे युवा हैवीवेट चैंपियन बन गए।
“अली, बूमाय! अली, बूमाय!” यानी एक क्रांति की शुरुआत…मोहम्मद अली सिर्फ एक बॉक्सर नहीं थे, वो एक क्रांति थे। उनकी जीत सिर्फ खेल तक सीमित नहीं थी, ये एक बड़े सामाजिक बदलाव की शुरुआत थी। 1960 का दशक अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलनों का दौर था, काले और गोरों के बीच भेदभाव चरम पर था। ऐसे समय में एक अश्वेत मुक्केबाज़ का दुनिया का सबसे बड़ा मुक्केबाज़ बन जाना, किसी इंकलाब से कम नहीं था।
अली ने बॉक्सिंग रिंग में जीत हासिल करने के साथ-साथ सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाई। उन्होंने इस्लाम अपनाया, कैसियस क्ले से मोहम्मद अली बने, और फिर वियतनाम युद्ध के ख़िलाफ़ अपने विचार खुलकर रखे। उन्होंने कहा,”मुझे किसी वियतनामी ने ‘नीग्रो’ कहकर अपमानित नहीं किया, तो मैं उनके ख़िलाफ़ क्यों लड़ूँ?”
इस बयान के बाद उन्हें जेल की सज़ा सुनाई गई, उनकी चैंपियनशिप छीन ली गई, लेकिन वो रुके नहीं। चार साल बाद जब वो रिंग में लौटे, तो पहले से भी ज़्यादा मज़बूत थे। उन्होंने “रंबल इन द जंगल” और “थ्रिला इन मनीला” जैसे ऐतिहासिक मुकाबलों में जीत हासिल कर दुनिया को दिखा दिया कि वो सिर्फ मुक्केबाज़ नहीं, बल्कि इतिहास के सबसे महान एथलीट हैं।
अली की महानता सिर्फ उनके मुक्कों में नहीं थी, बल्कि उनकी सोच, उनके आत्मसम्मान और उनके हौसले में थी। उन्होंने अपने धर्म, अपनी जाति, और अपने मूल्यों के लिए पूरी दुनिया से लड़ाई लड़ी।
पार्किंसन नाम की बीमारी ने उनके शरीर को कमजोर कर दिया, लेकिन उनकी आत्मा कभी नहीं टूटी। उन्होंने जीवन भर शांति, मानवता और भाईचारे का संदेश दिया। 3 जून 2016 को जब उन्होंने आखिरी साँस ली, तो पूरी दुनिया ने उन्हें एक योद्धा, एक क्रांतिकारी और सबसे बढ़कर “द ग्रेटेस्ट ऑफ ऑल टाइम” के रूप में याद किया।
आज भी जब कोई युवा मुक्केबाज़ रिंग में उतरता है, तो उसके दिल में अली की प्रेरणा होती है। जब कोई नाइंसाफी के खिलाफ आवाज़ उठाता है, तो उसकी आवाज़ में अली की गूँज होती है।