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Reading: वीर सावरकर…एक अमर क्रांतिकारी कवि, जो अपनी कविताएं दीवारों पर कोयले, कील और नाखून से कुरेदते थे।
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Fourth Special

वीर सावरकर…एक अमर क्रांतिकारी कवि, जो अपनी कविताएं दीवारों पर कोयले, कील और नाखून से कुरेदते थे।

जिसकी कलम देशभक्ति का सबसे कट्टर, सबसे भावुक चेहरा थी।

Last updated: मई 28, 2025 8:01 अपराह्न
By Rajneesh 1 दिन पहले
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13 Min Read
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“जब देशभक्ति का अंगार दिल में हो, तो वो भाषा में भी सुनाई पड़े
“जब देशभक्ति का अंगार दिल में हो, तो वो भाषा में भी सुनाई पड़े
जो अश्रु रक्त आंखों में हो, वो स्याही बन सदा बहता रहे।
जब चार दीवारें, अंधकार और पीड़ा बना ले तुम्हें कैदी
तो कविता को बना लेना अपना क्रांति का स्वर,
और तेज़ वेग में चिंघाड़ना…वीर सावरकर अमर रहे!
हिन्दुस्तान अमर रहे!”

-रजनीश तिवारी

इतिहास की आँखें अक्सर राजनीति की धूल से धुंधली हो जाती हैं। किंतु कुछ नाम समय की उस धुंध को चीरकर आते है…तेजस्वी, प्रखर, और अश्रु-सिक्त। स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर उन्हीं में से एक हैं। पर आज मैं केवल उस सावरकर की बात नहीं करना चाहता जो हथकड़ियों से जूझा, या जो कालापानी के सीने पर दहाड़ता था, या जिसको कुछ सोफ़े या चमकीली कुर्सियों पर बैठे लोग बेधड़क ‘बुजदिल’ कह देते हैं।

आज मैं उस सावरकर को याद करना चाहता हूँ जो कविता के रूप में भी आग उगलता था। जो काव्य से क्रांति का बीज़ बोता था, और जिसकी कलम देशभक्ति का सबसे कट्टर, सबसे भावुक चेहरा थी।

सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक ज़िले के भगूर गांव में हुआ। किशोर अवस्था से ही उनमें दो चीज़ें एक साथ पनप रही थीं…क्रांति की चेतना और कविता की पीड़ा। उन्होंने “मित्र मेला” नामक एक संगठन बनाया जहाँ युवा मन देशभक्ति, साहित्य और दर्शन के साथ खिलते थे।

कई लोग सोचते हैं कि कविता केवल भावनाओं का बहाव है, पर सावरकर की कविता भावनाओं की तलवार थी। उनकी काव्यशक्ति में ऐसा ताप था कि वो ब्रिटिश सरकार के लिए उतनी ही खतरनाक थी जितनी उनकी पिस्तौलें और संगठन।

1909 में जब उन्हें नासिक षड्यंत्र में फंसाकर गिरफ़्तार किया गया,तब एक युवा कवि का जीवन अंधकार के द्वीप की ओर ले जाया गया, अंडमान की कुख्यात सेलुलर जेल। वहाँ कैद में कविता सावरकर के लिए केवल अभिव्यक्ति नहीं रही। यह उनके जीवित रहने की जिद्दी जरिया बन गई। वो अपनी कविताएं दीवारों पर नाखून से खोदते थे। याद रख लेते थे और बंदी साथियों को कंठस्थ करवा देते थे ताकि कविता ज़िंदा रह सके।

उनकी प्रसिद्ध मराठी कविता “सागरा प्राण तळमळला” (सागर, मेरा प्राण तड़प रहा है।)” जिसे उन्होंने सागर की लहरों को देखकर कालापानी की सज़ा के दौरान लिखा था, जब वे समुद्र को देखकर अपनी मातृभूमि भारत की याद में तड़पते थे। कविता में उन्होंने समुद्र से संवाद करते हुए अपनी वेदना व्यक्त की है।


1. सागरा प्राण तळमळला (सावरकर द्वारा लिखे गए मराठी गीत/कविता का छोटा अंश)

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“ने मजसी ने परत मातृभूमीला, सागरा, प्राण तळमळला
भूमातेच्या चरणतला तुज धूता, मी नित्य पाहीला होता
मज वदलासी अन्य देशी चल जाऊ, सृष्टिची विविधता पाहू
तइं जननीहृद् विरहशंकीतहि झाले, परि तुवां वचन तिज दिधले
मार्गज्ञ स्वये मीच पृष्ठि वाहीन, त्वरि तया परत आणीन
विश्र्वसलो या तव वचनी मी, जगद्नुभवयोगे बनुनी मी
तव अधिक शक्त उद्धरणी मी, येईन त्वरे, कथुन सोडीले तिजला
सागरा, प्राण तळ मळला…

-सावरकर

हिन्दी में इस का कविता/गीत का भावार्थ – “हे सागर, तू मेरी मातृभूमि से जुड़ा है, तुझमें बहता पानी मेरी भूमि को छूता है, फिर भी मैं उससे दूर हूँ। मेरा प्राण तड़प रहा है… क्या तू मेरी व्यथा मेरी मातृभूमि तक पहुँचा सकता है?”

WhatsApp Image 2025 05 28 at 7.13.43 PM 2 1 - The Fourth

इस कविता में वीर सावरकर ने भारत की प्रकृति का वर्णन करते हुए लिखा है कि कैसे समुद्र में उन्होंने भारत माता के पांव धोते हुए देखे हैं। इस कविता में अपनी जन्मभूमि से अंत की पीड़ा है। यह कविता मराठी साहित्य और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन दोनों का गौरव है। इसमें सावरकर का क्रांतिकारी हृदय, कवि की संवेदनशील आत्मा, और राष्ट्रभक्ति का संगम है। ये मात्र एक कविता नहीं बल्कि एक बंदी कवि की स्वतंत्रता की भूख का अमर दस्तावेज़ है।

एक क्रांतिकारी कवि की सबसे बड़ी जीत तब होती है। जब उसकी कविता जनता की जुबान बन जाए। सावरकर की मराठी कविता “जयोस्तुते श्री महन्मंगेले” राष्ट्रभक्ति का एक वैदिक स्तुति-संगीत बन गया, जो कभी छात्रों और युवाओं के बीच एक राष्ट्रगान की तरह गूंजा करता था। उसकी हर पंक्ति एक प्रार्थना है, हर छंद एक अस्त्र है,और हर शब्द ‘मातृभूमि की पूजा’ है।

2. जयोस्तुते श्री महन्मंगेले (सावरकर द्वारा मराठी में रचित कविता का हिन्दी में भावानुवाद)

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“जय हो तुम्हारी, हे महान मंगलमयी!
तुम कल्याणकारी हो, शिव की वंदनीय भूमि की देवी!
हे स्वतंत्रता की भगवती!
मैं तुम्हें यशस्विनी और गौरवशाली मानकर नमन करता हूँ।

तुम राष्ट्र की चेतना की मूर्ति हो, नीति और समृद्धि की स्वामिनी।
हे स्वतंत्रता की देवी! तुम समृद्ध शासिका हो।
पराधीनता के अंधेरे आकाश में तुम ही तारों की तरह चमकी।
तुम्हारी रोशनी से ही यह आकाश प्रकाशित हुआ।
मैं तुम्हें यश से युक्त समझकर नमन करता हूँ।

फूलों के गालों पर जो लाली दिखती है, वह भी तुम्हारी देन है।
तुम्हीं सूर्य का तेज हो, समुद्र का गाम्भीर्य भी तुम्हीं में है।
हे स्वतंत्रता की देवी! यदि तुम न हो, तो ये सब नष्ट हो जाएं।
मैं तुम्हें यशोयुक्त समझकर नमन करता हूँ।

मोक्ष और मुक्ति – ये भी तुम्हारे ही रूप हैं, ऐसा वेदों में कहा गया है।
योगीजन तुम्हें ही परम ब्रह्म कहते हैं।
जो कुछ भी श्रेष्ठ, ऊँचा, मधुर और महान है – वह सब तुम्हारा ही साथी है।
मैं तुम्हें नमन करता हूँ।

हे स्वतंत्रता की देवी!
तुम रक्तरंजित होकर भी पूजनीय हो,
सज्जनों द्वारा पूजी गई हो।
तुम्हारे लिए मरना ही असली जन्म है,
और तुम्हारे बिना जीवन, मृत्यु समान है।
चर और अचर – सभी तुम्हारी शरण में हैं।
मैं तुम्हें यशस्विनी समझकर बारंबार नमन करता हूँ।”

-सावरकर

यह राष्ट्रगान स्वतंत्रता को एक देवी के रूप में चित्रित करता है। इसमें स्वतंत्रता को न केवल राजनीतिक अधिकार के रूप में, बल्कि आत्मा की मुक्ति, चेतना, सौंदर्य, तेज, नीति, और महानता के प्रतीक के रूप में पूजा गया है। सावरकर स्वतंत्रता को जीवन का सार मानते हैं – उसके बिना जीवन, मृत्यु समान है। वह कहते हैं कि स्वतंत्रता के लिए मरना ही असली जीवन है। इस गान में स्वतंत्रता को वेदों में वर्णित ब्रह्म की संज्ञा दी गई है और कहा गया है कि सारा जगत उसकी शरण में है।

सावरकर के जीवन में कविता और दर्शन का द्वंद्व रहा। वो कवि थे, पर वे केवल सौंदर्य के लिए नहीं लिखते थे। उनकी कविताएं क्रांति की भूमिका थीं,वे कविताओं के जरिए अधिनायकवाद को चुनौती देते थे।उनकी कविता में निराशा भी है, पर वो नैतिक पराजय नहीं है। वो एक दार्शनिक यथार्थ है जो कहता है, “यदि जीवन ही संघर्ष और रण है, तो कविता तलवार क्यों न हो?”

आज भी यदि कोई कालापानी की दीवारें में लिपी – पुती दीवारों को कुरेद कर सुनने की कोशिश करे, तो शायद वो वहां सावरकर की वेदना से भरी आवाज़ में गुन गुनाए गए गीतों के बोल को सुन पायेगा।

3. माझं एक छोटंसं ऋणफेड (सावरकर द्वारा मराठी में रचित कविता का हिन्दी भावानुवाद)

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“हे माता, मेरी बात ध्यान से सुनो,
मेरी यह सेवा भले ही नगण्य हो,
पर इस नन्हे पुत्र की बात ध्यान से सुनो!
तुम्हारे दूध से धन्य हुए हम!
तुम्हारा हम पर कितना बड़ा ऋण है!
धधकती अग्नि में अपनी देह की आहुति दे रहा हूँ,
यह इस ऋण की पहली किश्त है!
प्रत्येक जन्म में बार-बार इस देह को तुम्हारी मुक्ति की पवित्र चिता में समर्पित करूँगा।
श्री कृष्ण को वीर सारथी बनाकर,
श्री राम को सेनापति बनाकर,
यदि मैं न रहूँ तो तुम्हारी तीस करोड़ की सेना नहीं रुकेगी!
वे राक्षस को परास्त करने के लिए आगे बढ़ेंगे-और हिमालय की चोटी पर अपने हाथों से स्वतंत्रता का भगवा ध्वज फहराएँगे!”

-सावरकर

आज कुछ भी बोलने से पहले हमें सावरकर के उस रूप को देखना चाहिए, जो आत्महत्या से भी डरते नहीं थे, जो धार्मिक कर्मकांडों से परे थे, जिन्होंने ‘हिंदुत्व’ की परिभाषा दी। हम उनकी कविताओं को पढ़कर ही अंदाजा हो पायेगा की सावरकर जिस हिंद की मिट्टी से बने थे वो मोम नहीं लोहे से मिलकर बनी थी। अगर सावरकर को समझना है,तो उनकी कविताओं को पढ़ो,क्योंकि वहीं उनका असली रक्त बहता है।

4. “उठा उठा! एकत्र या!” (सावरकर द्वारा मराठी और अँग्रेजी में रचित कविता का भावानुवाद)

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“लड़ो! क्या हमारे लोगों की दयनीय दुर्दशा
तुम्हारे हृदय को पीड़ा से नहीं चीरती?
हे नवयुवक! अपने अंदर गर्म, युवा, रक्त को मत फोड़ो-
बिजली से भी अधिक उग्र रक्त?
आओ! मृत्यु के निकट जाओ, उसका सामना करो!
हमारे मुकुट को चकनाचूर करने का साहस किसने किया?
हिंदुओं के ध्वज को किसने तोड़ दिया?
हमारी बढ़ती आशाओं को किसने रौंदा? लड़ो! इस पर विचार करते हुए, तुम्हारी आँखों से रात-दिन
गर्म, उग्र आँसू क्यों नहीं बहते!
आह, भारत के लिए कितने ही वीर रणभूमि में कूद पड़े!
कुछ, इस पीड़ा से कुचले हुए, युद्ध में मारे गए, कुछ, अनगिनत यातनाओं की चिता में, आग के हवाले कर दिए गए, कुछ निर्भीक होकर फाँसी पर चढ़ गए!
सुनो! उनकी अधूरी तड़प की गरजती आवाज, हर पल तुम्हें पुकारती है! क्या कोई है जो इसका कोलाहल सुन सकता है?
उठो, उठो, तुम सब जो करते हो!
अपना जीवन दांव पर लगाओ!
हमारे उद्देश्य को पूरा करने के लिए लड़ो!”

-सावरकर

इतिहास सावरकर को कभी केवल ‘विवादित’ कहकर खत्म नहीं कर सकता। क्योंकि सावरकर की आत्मा आज भी उन छंदों में ज्वलंत है, जो कभी जेल की अंधेरी कोठरी प्रज्वलित हुई और तेज प्रकाश बन कर अनंत तक फैल गई। कहीं न कहीं उनके साहित्य की वजह से भी आज ‘पूर्ण स्वराज्य’ की चेतना जीवित है।

5. “जयस्तुते” (सावरकर द्वारा मराठी में रचित कविता का हिन्दी भावानुवाद)

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“जय हो! हे तेजस्विनी, हिंदुओं के पराक्रम!
जय हो! हे दैवीय तेज वाले, हिंदुओं की तपस्या से धन्य!
जय हो! हे समृद्ध हिंदू भाग्य के रत्न,
जय हो! हे भगवान जैसे शिवाजीराजा, हिंदू नृसिंह अवतार!
यह हिंदू राष्ट्र आपको नमन करता है,
हृदय और आत्मा से हम आपकी सराहना करते हैं,
अपनी भक्ति के चंदन के लेप से हम आपका अभिषेक करते हैं-
जिन्होंने हमारी अनकही अभिलाषाओं को पूरा किया!
जय हो! हे भगवान जैसे शिवाजीराजा, हिंदू नृसिंह अवतार!”

-सावरकर

कई मायनों में हमारे देश का ये दुर्भाग्य रहा है कि नई पीढ़ी को हमारा गौरवशाली इतिहास और भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रणेता प्रखर राष्ट्रवादी नेता स्वातंत्र्यवीर सावरकर जैसे आज़ादी के दीवाने और राष्ट्रभक्त लोगों के बारे वैसा नही पढ़ाया जाता है जैसा सच मे है।

आज भारतीय भूमि में जन्में ऐसे महान कवि को हमारा सत् – सत् नमन, जिसने अपने शब्दों में प्रतिरोध की नमी, संघर्ष की आँच, और आत्मा की तड़प भर कर राष्ट्र को स्वतन्त्रता, पूर्ण स्वराज्य और हिन्दुत्व जैसे शब्दों की असली परिभाषा समझाई।

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TAGGED: freedom fighter, Indian history, patriot, revolutionary poet, thefourth, thefourthindia, veer savarkar
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