अभी अभी खोजने पर पता चला कि आज विश्व कविता दिवस है। दुख है कि खोजने पर पता चला। वैसे मैंने ऐसा लोगों से सुना है कि ठीक ठाक कविताएं लिख लेता हूं, हालांकि मैं नहीं मानता! मैं नहीं मानता क्यूंकि लोग कहते हैं। किसी ने पूछा भई ऐसा क्यूँ? मियां क्यूंकि लोग कहते ही तो बहुत हैं, महसूस कम करते हैं और कविता महसूस की जाती है। तो क्या कुछ कहा ना जाए लिखा ना जाए सिर्फ महसूस किया जाये? उसने फिर चिढ़ते हुए कहा। अरे भई मैंने कब ऐसा कहा और वैसे भी कोई मसीहा या काल्पनिक इसपर या खुद को उस काल्पनिक ईश्वर का संदेश वाहक कहने वाला तो नहीं हूं जिसका हर कुछ कहा गया माना जाये? बिल्कुल कहा जाये, लिखा जाए। लेकिन मुझे स्वयं को क्या मानना है ये मुझे तय करने दिया जाए!
अब ये तो बात हुई बेमतलब की…मतलब, आपके लिए बेमतलब, लेकिन अब आपके मतलब कि एक बात कहता हूं अगर आप आने वाली बात से मतलब रखना चाहें तो…
“मौत तू एक कविता है।
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको!”
-शायद गुलज़ार द्वारा लिखित
फिल्म का नाम है ‘आनंद’ और ये कविता शायद गुलज़ार ने लिखी है जितना मुझे याद आ पाया है, हां मैं ढूंढ सकता था कि किसने लिखी। लेकिन व्यक्ती से ज्यादा विचार मेरे लिए ज्यादा मायने रखते हैं सो नहीं ढूंढा। मैं यहां खुद की कविता भी लिख सकता था पर आज कोई कविता नहीं ब्लकि कविता पर कुछ लिखने की इच्छा हुई है।
सवाल है कि अगर कविता न होती तो क्या होता? सोचो…यह दुनिया कैसी होती? क्या शब्द केवल साधारण अर्थों में सीमित रह जाते? क्या भावनाएँ कभी पूरी तरह प्रकट हो पातीं? क्या प्रेम, पीड़ा, संघर्ष और सौंदर्य का कोई साक्षी होता?
मतलब ऊपर लिखी गई गुलज़ार की ही कविता को महसूस करने का प्रयास करें…मौत की इतनी अच्छी परिभाषा भला और क्या हो सकती है। मेडिकल टर्म की परिभाषा में तो मौत बहुत उबाऊ सी बात होती है और लेकिन कविता में मौत एक कविता हो जाती है। हालांकि ज्यादातर लोग ये शब्द सुनकर डर और बौखला जाते हैं। मुझे नकारात्मक व्यक्ती कहते हैं। लेकिन ये तो तय बात है और तय बातों से भला घबराना क्या?
कविता उन अनकहे अहसासों की अभिव्यक्ति होती है जो कभी पूरी तरह बोले नहीं जा सकते। अगर कविता न होती, तो प्रेम शायद सिर्फ एक जैविक प्रक्रिया होती जिसे हार्मोनल इमबैलैंस कह दिया जाता। या किसी गणित के समीकरण की तरह समझा दिया जाता…अर्थपूर्ण होकर भी बिल्कुल अर्थहीन।
बिना कविता के, शायद दुनिया एक विशाल मशीन की तरह होती। जो अभी है…कठोर, ठोस, बेमतलब की रेखाओं से बंधी। नदियों का बहाव केवल जल का प्रवाह कहलाता वो कल कल ना बहती, पत्तों की सरसराहट सिर्फ हवा का दबाव होती, लेकिन उसमें कोई फुसफुसाहट न होती और ना ही गीत बनते। चाँदनी रातें बस रोशनी का परावर्तन होतीं, लेकिन उनमें चांद का जिक्र करके कोई प्रेम पत्र न लिखा गया होता।
बिना कविता के, दुनिया महज सूचनाओं और तथ्यों का अंबार होती। लोग केवल संवाद करते, लेकिन संवाद में भावनाएँ कुछ कम होतीं या बिल्कुल ना होती। प्रेम या पीड़ा में होते हुए सिर्फ शारीरिक कंपन होता ना कि रूहानी… और होता भी तो बयां ना किया जा सकता। दुख केवल आँसू बनकर गिरते, लेकिन उनमें वह गहराई न होती जो इंसान को भीतर तक बदल दे…जब एक सैनिक युद्ध में गिरता, तो उसकी कहानी इतिहास की किसी किताब में एक संख्या बनकर दर्ज होती,लेकिन उसका दर्द, उसकी माँ की चीख, उसकी अधूरी चिट्ठियां और उसके इंतजार में बैठी उसकी संगिनी के नेत्रों में भरे समुन्दर की व्याख्या कहीं दर्ज नहीं हो पाती।
इज़राइल को दिए गए धोखे को याद ही ना किया जाता। फिलिस्तीन के Darwish के प्रवासन से उठी पीड़ा आपको कभी रुलाती नहीं। जौन का खून थूकना महज़ मात्र सिगरेट सुलगाने से हुई टीबी बीमारी का दोष बन कर रह जाता, Emily Dickinson, Sylvia Plath, Virginia woolf बस केवल मां, संगिनी, बहन बनने के बाद रसोई घरों के चूल्हे से जली लाश बनकर रह गई होती…लाश जिसे ‘विद्रोही’ ‘मुअन जो दड़ो’ के तालाब की आखिरी सीढ़ी में पड़ी लाश के रूप में कभी देख ही ना पाते। और bukowski! वो तो मियां डूब गए होते बच्चन जी की मधुशाला में बिना कुछ कहे सुने!
ये कविता ही तो है जो आँसुओं को शब्द देती है, शहीदों को अमरता देती है, और पीड़ा को सौंदर्य और अर्थ में बदल देती है। अगर कविता न होती, तो ईश्वर से बातचीत की कल्पना भी खत्म हो जाती। प्रार्थनाएँ मात्र शब्द रह जातीं, उनमें न कोई आत्मा होती न उम्मीद। गीता, रामायण, कुरान, बाइबल सब केवल निर्देशों की किताबें होतीं, लेकिन इनमें भक्ति की गहराई नहीं होती। मीरा की तड़प, राधा का वियोग और सीता का धैर्य मात्र धरा पर धरा रह जाता।
ऐसा नहीं कि मैं कविता को केवल प्रेम की भाषा कहना चाह रहा हूं। ब्लकि मैं खुद प्रेम से ज्यादा कविता को विद्रोह की आवाज़ मानता हूं। यह जंजीरों को तोड़ती है, सत्ता को चुनौती देती है। भगत सिंह ने जब जेल में अपनी कविताएँ लिखीं, तो वह सिर्फ शब्द नहीं थे, वे बारूद के गोले थे। सावरकर ने अपने नाखुन घिस घिस कर जब दीवारों पर कविताएं उकेरी तो वो महज़ शब्द नहीं अंग्रेजी हुकूमत के भविष्य की रेखाएं थी। अगर कविता न होती, तो क्रांतियाँ केवल ऐतिहासिक तारीखें बन कर रह जातीं। और गुलामी केवल भौतिक नहीं मानसिक होती जो किसी inherited virus की तरह फैलती जाती आने वाली सभी पीड़ियों में।
कविता एक धागा है जो सभ्यता को जोड़कर रखता है। यह हमारी कहानियों, लोकगीतों, मिथकों और परंपराओं में स्पंदन बनाए रखती है। अगर कविता न होती, तो दुनिया केवल इमारतों, सड़कों और मशीनों का ढांचा होती। इसमें कोई आत्मा नहीं होती, कोई इतिहास नहीं, कोई भविष्य नहीं।
अगर कविता न होती, तो हम केवल जी रहे होते, लेकिन जी नहीं रहे होते। जीवन सिर्फ विज्ञान और तर्क से चलता है,शायद बेहतर हो भी सकता था लेकिन बेहतर क्या होता ये मेरे लिए मुझे तय करने दें और आपके लिए आप तय करें। मेरे लिए तो ये जबरन मिला जीवन एक कविता ही है जिसे मैं लिख रहा हूँ। मुझे लिखने दिया जाए, बस कवि की संज्ञा ना दी जाए क्यूंकि इससे आ जायेगा कवि होने का दबाव और दबाव में ना कविता लिखी जाती हैं और ना जीवन जिया सकता है।
NOTE: ये लेख लेखक ‘के एन. रजनीश तिवारी’ की अपनी बौधिक कल्पना से निकले विचार हैं। इन्हें यथार्थ समझ के अन्यथा ना लिया जाए।