तमिलनाडु सरकार ने हाल ही में भारत की छवि को नुकसान पहुंचाने वाला कदम उठाया है। स्टेट में DMK की Government ने हालिया बजट और सभी डॉक्युमेंट्स से ₹ का सिंबल हटा दिया। CM एम. के. स्टालिन ने ₹ के ऑफिशियल सिम्बल को हटाकर तमिल लिपि के अक्षर ‘ரூ’ से बदल दिया। यह बदलाव देशभर में ₹ सिंबल का स्थान लेने वाला पहला उदाहरण है और इसे तमिलनाडु में चल रहे लैंग्वेज वॉर से जोड़ा जा रहा है।
हम इसे भारत की इमेज के लिए खतरनाक कह रहे हैं क्यूंकि ये सिंबल किसी स्पेसिफिक लैंग्वेज तक ही नहीं ब्लकि भारतीय तिरंगे से प्रेरित था, जिसे उदय कुमार धर्मलिंगम ने डिजाइन किया था। यह सिंबल 2010 में अपनाया गया था और भारतीय मुद्रा के लिए आधिकारिक प्रतीक बन गया था। दिलचस्प बात यह है कि धर्मलिंगम तमिलनाडु के एक पूर्व विधायक के बेटे हैं।
रुपए का चिन्ह ₹ देवनागरी लिपि के ‘र’ और लैटिन लेटर ‘R’ को मिला कर बना है, जिसमें एक वर्टिकल लाइन भी बनी हुई है। यह रेखा हमारे राष्ट्रध्वज और बराबरी के चिन्ह को प्रतिबिंबित करती है। भारत सरकार ने 15 जुलाई 2010 को इस चिन्ह को अपनाया था।
तमिलनाडु सरकार का यह कदम न केवल भारत की राष्ट्रीय एकता को कमजोर करता है, बल्कि क्षेत्रीयता को बढ़ावा देकर देश की पहचान को भी खतरे में डालता है। क्यूंकि यदि इस प्रकार की प्रवृत्ति जारी रहती है, तो अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों में भी परिवर्तन की संभावना बढ़ सकती है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय ध्वज, जो भारत की विविधता में एकता का प्रतीक है, को क्षेत्रीय ध्वजों से बदलने का प्रयास हो सकता है। राष्ट्रीय गान या प्रतीक चिह्नों में भी क्षेत्रीयता के आधार पर बदलाव की मांग उठ सकती है, जिससे देश की अखंडता और एकता पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।
इस प्रकार के कदम भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता को विभाजित करने के बजाय, उसे और मजबूत करने के लिए उठाए जाने चाहिए। हमें यह समझना होगा कि राष्ट्रीय प्रतीक हमारी साझा पहचान का प्रतिनिधित्व करते हैं, और उनमें बदलाव करना देश की एकता और अखंडता के लिए हानिकारक हो सकता है।
भारत की पहचान केवल उसकी सीमाओं से तय नहीं होती, बल्कि उसकी संस्कृति, परंपराओं और प्रतीकों से भी बनती है। राष्ट्रीय प्रतीक हमारी एकता, इतिहास और भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भारत में भाषाई विविधता हमेशा से रही है, लेकिन इसे कभी भी राष्ट्र की अखंडता के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया गया। ₹ प्रतीक में बदलाव, यदि तमिल पहचान को प्रमुखता देने के उद्देश्य से किया गया, तो यह हिंदी बनाम तमिल विवाद को और बढ़ा सकता है। इससे क्षेत्रीयतावाद और भाषाई टकराव को और बल मिलेगा।
DMK पहले भी हिंदी विरोधी आंदोलनों में सबसे आगे रही है। यदि वे राष्ट्रीय प्रतीकों को बदलने की कोशिश करते हैं, तो यह केवल तमिलनाडु बनाम केंद्र का मुद्दा नहीं रहेगा, बल्कि दक्षिण भारत बनाम उत्तर भारत का एक नया विवाद खड़ा कर सकता है। यह देश की एकता के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।
रुपये का प्रतीक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय अर्थव्यवस्था की पहचान बन चुका है। यदि इसे बदला जाता है, तो इसका संदेश यह जाएगा कि भारत अपनी सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिरता को लेकर असमंजस में है। इससे निवेशकों के मन में अस्थिरता की भावना आ सकती है, जिससे भारतीय बाजार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
DMK जैसे दल पहले ही हिंदी को लेकर विवाद खड़ा कर चुके हैं। अगर उन्हें खुली छूट मिलती है, तो वे “जन गण मन” की जगह तमिल या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में नया राष्ट्रगान लाने की मांग कर सकते हैं।
तिरंगे में अशोक चक्र भारत के ऐतिहासिक मूल्यों का प्रतीक है, लेकिन अगर क्षेत्रीयतावाद की राजनीति इसी तरह चलती रही, तो कोई भी पार्टी अपनी संस्कृति और पहचान को राष्ट्रीय ध्वज में शामिल करने की मांग कर सकती है।
बाघ भारत का राष्ट्रीय पशु है और मोर राष्ट्रीय पक्षी, लेकिन कुछ राजनीतिक दल अपनी क्षेत्रीय पहचान को प्रमोट करने के लिए इनमें भी बदलाव की मांग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, तमिल पहचान को बढ़ाने के लिए बाघ की जगह किसी अन्य पशु को राष्ट्रीय प्रतीक बनाने की मांग की जा सकती है।
रुपये के प्रतीक में बदलाव के बाद अगर इस प्रवृत्ति को रोका नहीं गया, तो भारतीय पासपोर्ट, सरकारी दस्तावेज़ों और अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों में भी क्षेत्रीय बदलाव की मांग उठ सकती है।
बिल्कुल भारत का संविधान हमें विविधता में एकता का सिद्धांत देता है, लेकिन अगर हर राज्य अपनी अलग पहचान को राष्ट्रीय पहचान से ऊपर रखने लगे, तो यह हमारे संघीय ढांचे को कमजोर करेगा। DMK जैसे क्षेत्रीय दलों की यह नीति भविष्य में अन्य राज्यों को भी इस तरह के कदम उठाने के लिए प्रेरित कर सकती है, जिससे भारत के राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा और टकराव बढ़ेगा।
राष्ट्रीय प्रतीक किसी एक दल, समुदाय या राज्य की संपत्ति नहीं होते, वे पूरे देश की पहचान होते हैं। यदि इस तरह के बदलाव को बढ़ावा दिया गया, तो यह न केवल भारत के भीतर विभाजन को बढ़ाएगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी छवि को नुकसान पहुंचाएगा।
सरकार को इस मुद्दे पर स्पष्ट रुख अपनाना चाहिए और क्षेत्रीय राजनीति के प्रभाव में आकर भारत की राष्ट्रीय पहचान से समझौता नहीं करना चाहिए।