एक सवाल है कि, ‘क्या मरने का हक़ भी उतना ही ज़रूरी है, जितना जीने का हक़?’ Euthanasia या इच्छामृत्यु का मतलब होता है एक इंसान को medically assisted तरीके से मौत देना…जब वो खुद आगे बढ़कर कहता है कि अब वो और suffering नहीं सह सकता। ये आमतौर पर तब किया जाता है जब किसी व्यक्ति की बीमारी incurable होती है और वो unbearable pain में होता है।
इच्छामृत्यु एक ऐसी बहस का विषय है जो शायद हमेशा अधूरी ही रह जायेगी। लेकिन साल 2001 में, आज ही के दिन यानी 10 अप्रैल को नीदरलैंड्स दुनिया का पहला ऐसा देश बना जिसने Euthanasia यानी इच्छामृत्यु को legal कर दिया। ये फैसला medical ethics, इंसानी dignity, और कानून की सीमाओं को redefine करने वाला था। लेकिन क्या किसी इंसान को अपनी मर्ज़ी से मौत चुनने का हक़ मिलना चाहिए? क्या ये इंसानियत है या हार मानने का महज़ एक तरीका?
2001 में पास हुए इस कानून के तहत कुछ specific conditions के अंदर euthanasia को legal माना गया। ये conditions है… मरीज को unbearable suffering होनी चाहिए, जिसका कोई इलाज न हो। मरीज खुद aware हो और अपनी इच्छा clarity से रख सके। कम से कम दो doctors की independent opinion होनी ज़रूरी है। Family से discussion किया जाता है और ये प्रक्रिया पूरी तरह regulated होनी चाहिए।
क्यों euthanasia को support किया गया था?
हर इंसान को एक respectable life चाहिए, लेकिन उतनी ही इज़्ज़त के साथ मौत भी। जब कोई इंसान extreme pain से गुज़र रहा हो और उसके पास कोई option न हो, तो उसकी इच्छा से peacefully मरना एक इंसानी हक़ बन जाता है।
कुछ diseases जैसे terminal cancer, ALS या advanced neurological disorders में इंसान की हालत धीरे-धीरे इतनी खराब हो जाती है कि जीना torture बन जाता है। ऐसी हालत में euthanasia उस suffering को खत्म कर सकता है।
कुछ लोगों का मानना है कि जब किसी मरीज की कोई उम्मीद नहीं होती, तब भी ventilators या intensive care में उनका treatment चलाना सिर्फ resources waste करता है। Euthanasia से इन resources को उन लोगों के लिए use किया जा सकता है जिन्हें वाकई उम्मीद है।
Modern societies में individual autonomy यानी खुद के decisions लेने की आज़ादी सबसे बड़ी value मानी जाती है। अगर इंसान को जीने का हक़ है, तो मरने का भी होना चाहिए।
क्यूँ होता है इसका विरोध?
कई धार्मिक और नैतिक groups का मानना है कि जीवन भगवान का दिया हुआ है, और उसे खत्म करने का हक़ किसी को नहीं है…चाहे वो इंसान खुद ही क्यों न हो।
एक बहुत बड़ा डर ये है कि अगर euthanasia legal हुआ, तो इसका misuse हो सकता है। किसी बुज़ुर्ग, mentally ill या disabled इंसान पर family या doctors की तरफ़ से pressure हो सकता है कि वो बोझ न बनें और मर जाएं।
कई बार लोग depression में होते हैं और उस समय वो death को एक solution मानने लगते हैं। ऐसे में क्या उनकी consent वाकई informed और rational होती है?
Euthanasia के legal होने से society में ये message जा सकता है कि कुछ ज़िंदगियों की value कम है या suffering इंसान को खत्म कर देना ही solution है। इससे long-term में समाज का mental health और empathetic culture कमजोर हो सकता है।
दूसरे देशों से हट कर अगर भारत की बात करें तो भारत में 2018 में Passive Euthanasia को legal किया गया। Passive euthanasia मतलब किसी मरीज की treatment या life-support system को बंद करना ताकि उसकी natural death हो सके। लेकिन Active Euthanasia, जिसमें डॉक्टर किसी को injection देकर उसकी जान ले लेता है, वो अभी भी illegal है।
नीदरलैंड्स में एक 17 साल की लड़की Noa Pothoven की स्टोरी ने दुनिया को शॉक किया। उसने childhood trauma और depression की वजह से euthanasia की demand की थी। भले ही बाद में ये clarify हुआ कि उसने बिना medical assistance के खुद अपनी life ली थी, लेकिन ये केस एक mirror बन गया कि mental illness में euthanasia की legality कितनी complex है।
Euthanasia एक ऐसा मुद्दा है जो सिर्फ logic से नहीं, empathy से भी जुड़ा है। सवाल सिर्फ कानून का नहीं, इंसानियत का है। क्या मौत को भी हम उतनी ही respect देंगे जितनी हम जीवन को देते हैं? या फिर ये इंसानी हार की एक elegant wrapping है?
नीदरलैंड्स ने 10 अप्रैल 2001 को इतिहास तो बनाया लेकिन साथ ही एक ऐसी बहस शुरू कर दी जो शायद कभी पूरी नहीं होगी। एक तरफ़ इंसान की autonomy, दूसरी तरफ़ उसके जीने की sacredness। एक तरफ़ suffering से मुक्ति, दूसरी तरफ़ ethical dilemma।