इन्द्र जिमि जंभ पर, बाडब सुअंभ पर,
रावन सदंभ पर, रघुकुल राज हैं।
पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यौं सहस्रबाह पर राम-द्विजराज हैं॥
दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर,
भूषन वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं।
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर शिवराज हैं॥
कवि भूषण की इस उत्कृष्ट कविता में छत्रपति शिवाजी महाराज का वर्णन कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं। उस गहरे अंधकार और संकटपूर्ण समय में शिवाजीराजे एक प्रखर ज्योति बनकर उभरे, जिन्होंने अपने अद्वितीय साहस और कूटनीति से स्वराज्य की नींव रखीं। उनके इस सपने ने आने वाले समय में इस भारतीय सभ्यता, संस्कृति देश और धर्म की दिशा को ही बदल कर रख दिया।
उनकी 395वीं जयंती पर इस धरा के सबसे महान सपूतों में से एक को शत शत नमन तथा उनके पूरे जीवन पर एक नज़र!
19 फरवरी 1630 को शिवनेरी किले में शिवाजी का जन्म हुआ। उनकी माता जीजाबाई तथा पिता शाहजी भोंसले थे। जीजाबाई ने ही इनके मन में स्वराज्य का बीज बचपन से ही बो दिया था। प्रचलित कहानियों के अनुसार उनकी माता ने देवी तुलजा भवानी से प्रार्थना की थी कि यदि पुत्री हो तो दुर्गा की भांति हो जो शत्रुओं का संहार करें और पुत्र हो तो श्रीराम की तरह। देवी ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया और सचमुच शिवाजी महाराज में प्रभु श्रीरामचंद्र की वीरता और धर्मनिष्ठा का आभास होता हैं।
उनका चरित्र इतना उज्ज्वल था की महिला के सम्मान पर हाथ डालने वाले व्यक्ति के हाथ ही काट डाले। मात्र 15 वर्ष की आयु में अपने मित्रों के रायरेश्वर महादेव मंदिर में अपने रक्त से स्वराज्य की शपथ लेने वाले शिवाजी के सामने पहाड़ के समान कठिनाइयां थीं। स्वराज के इस सपने को पूरा करने के लिए बीजापुर, गोलकोंडा, अहमदनगर और मुगलों जैसी शक्तियों का सामना करना था। लेकिन वो पीछे नहीं हटे। इन कठिन परिस्थितियों में उन्हें अनगिनत वीर योद्धाओं का साथ भी प्राप्त हुआ। तान्हाजी, बाजीप्रभु देशपांडे, मुरारबाजी, नेताजी पालकर, कान्होजी जेधे, प्रतापराव गुजर, हम्बीरराव जैसे अनगिनत साथियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर इस सपने को साकार किया।
कहानियों के अनुसार, माँ तुलजा भवानी ने स्वयं उन्हें दर्शन देकर अपनी तलवार भेंट की थी और यह आशीर्वाद दिया था कि तुम कभी पराजित नहीं हो सकते। सचमुच देवी का आशीर्वाद फलीभूत हुआ और एक-एक करके सभी मुश्किलों को पार किया। चाहे प्रतापगढ़ की लड़ाई हो चाहे, चाहे पन्हाला का युद्ध हो उन्होंने हर बाधा को पार किया और अंततः 6 अप्रैल 1680 को पहले छत्रपति के रूप में उनका राज्याभिषेक हुआ।
उन्होंने केवल राज्य की सीमाओं का विस्तार ही नहीं किया, लेकिन आम नागरिक एक अच्छा जीवन जी सके इसके लिए प्रयत्नशील रहे। उन्होंने सैनिकों के लिए नियम और अनुशासन कामों में पारदर्शिता और आम जनमानस के लिए न्याय का मार्ग प्रशस्त किया। समाज के हर वर्ग की भलाई हो इसके लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे।
उनके निर्वाण के बाद भी वीर शंभूराजे, राजाराम महाराज और ताराबाई ने विदेशी शक्तियों के विरुद्ध लड़ाई को जारी रखा। बाद में छत्रपति शाहू महाराज और महान पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में और चिमाजी अप्पा, मल्हारराव होलकर, रानोजी सिंधिया, पंवार, गायकवाड़, भोइते आदि योद्धाओं के बलबूते पर ये स्वराज मराठा साम्राज्य के रूप में बदला।
आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम में श्री अरविंद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लोकमान्य तिलक और वीर सावरकर जैसी विभूतियों ने भी महाराज से प्रेरणा लेकर अंग्रेज़ों के दांत खट्टे कर दिए थे। उनकी 395वीं जयंती पर हम सबका कर्तव्य है कि हम उनकी शिक्षाओं और सिद्धांतों को अपनाएं, उनके अद्वितीय साहस और नेतृत्व से प्रेरणा लेकर देश और समाज की सेवा करें।