11 फरवरी 1990, दक्षिण अफ्रीका के इतिहास का एक ऐसा दिन जब इंसाफ़ की लौ फिर से जल उठी। ठीक 16:14 बजे, विक्टर वर्स्टर जेल के फाटक खुले और एक दुबला-पतला किंतु दृढ़ निश्चयी व्यक्ति अपनी पत्नी विनी मंडेला का हाथ थामे बाहर निकला। चारों ओर लोगों का हुजूम था, जो उस आदमी की एक झलक पाने के लिए घंटों से तपती धूप में खड़ा था—नेल्सन मंडेला। वह आदमी, जिसने अपने 27 साल सलाखों के पीछे बिताए थे, लेकिन उसकी आत्मा कभी क़ैद नहीं हुई। वह आदमी, जिसे दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने भुला देना चाहा, लेकिन जिसने दुनिया के दिलों में अपनी जगह बना ली।
1918 में दक्षिण अफ्रीका के ईस्टर्न केप में जन्मे मंडेला का असली नाम रोलीहल्हला था, जिसका अर्थ होता है “मुसीबत खड़ी करने वाला।” शायद उनका नाम ही उनकी नियति तय कर चुका था। वे बचपन से ही अन्याय के खिलाफ खड़े होने वाले इंसान थे। जब वे जोहान्सबर्ग पहुंचे, तो रंगभेद की नीतियों ने उनके भीतर एक विद्रोही को जन्म दिया।
अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस (ANC) से जुड़ने के बाद उन्होंने अहिंसक विरोध का रास्ता अपनाया। वे रैलियों का नेतृत्व करते, बहसों में सरकार की रंगभेदी नीतियों की धज्जियां उड़ाते और लोगों को संगठित करने में दिन-रात लगे रहते। लेकिन दक्षिण अफ्रीकी सरकार, जो पूरी तरह से श्वेत अल्पसंख्यकों के हित में चलती थी, उसे यह कैसे स्वीकार होता?
1960 में शार्पविल नरसंहार ने मंडेला की सोच को बदल दिया। 21 मार्च को हजारों अश्वेत नागरिक पास लॉ (Pass Laws) का विरोध कर रहे थे—वे कानून जो उन्हें अपने ही देश में गुलामों की तरह रहने पर मजबूर कर रहे थे। पुलिस ने निर्दयता से गोलियां बरसाईं, 69 लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए।
मंडेला को अहिंसा की ताकत पर भरोसा था, लेकिन जब अहिंसक विरोध के बदले सरकार निर्दोष लोगों का खून बहाने लगी, तो उन्हें महसूस हुआ कि अब केवल शब्दों से बदलाव नहीं आएगा। 1961 में उन्होंने “उमखोंतो वी सिज़वे” (MK) नामक एक गुप्त संगठन बनाया, जिसने सरकार की बुनियादी संरचनाओं को नुकसान पहुंचाने के लिए सशस्त्र संघर्ष की राह अपनाई। हालांकि उनका उद्देश्य कभी भी निर्दोष लोगों को नुकसान पहुँचाना नहीं था, लेकिन उन्होंने यह तय कर लिया कि सरकार को उनकी क्रूरता की कीमत चुकानी होगी।
1962 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और राजद्रोह के आरोप में पांच साल की सजा सुनाई गई। लेकिन असली झटका 1964 में रिवोनिया ट्रायल के दौरान लगा, जब उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। वे मौत की सज़ा से बाल-बाल बचे, लेकिन उनका जीवन पूरी तरह से जेल की अंधेरी कोठरियों में कैद कर दिया गया।
मंडेला और उनके साथियों को रॉबेन आइलैंड जेल भेजा गया—एक ऐसी जेल, जहां कैदियों को पत्थर तोड़ने का काम दिया जाता था, सूरज की तपिश में बिना चश्मे के काम करने की वजह से कई कैदियों की आंखों की रोशनी चली गई। लेकिन मंडेला ने हार नहीं मानी। जेल में भी वे पढ़ाई करते, किताबें पढ़ते और अन्य कैदियों को प्रेरित करते।
1980 के दशक में जब दुनिया भर में रंगभेद के खिलाफ आवाज़ बुलंद होने लगी, तब दक्षिण अफ्रीकी सरकार पर दबाव बढ़ता गया। 1985 में सरकार ने मंडेला को रिहाई की पेशकश की, लेकिन शर्त यह थी कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ देंगे। उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया।
आख़िरकार 11 फरवरी 1990 को, 27 साल बाद, मंडेला आज़ाद हुए। लेकिन यह सिर्फ़ एक व्यक्ति की रिहाई नहीं थी, यह पूरे दक्षिण अफ्रीका के बदलाव की शुरुआत थी।
रिहा होने के बाद मंडेला ने श्वेत सरकार से बातचीत की और 1994 में दक्षिण अफ्रीका का पहला लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, जिसमें अश्वेतों को भी वोट देने का अधिकार मिला। 10 मई 1994 को मंडेला देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने।
मंडेला का संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं था, वह मानवीय गरिमा, समानता और न्याय की लड़ाई थी। उन्होंने दुनिया को यह सिखाया कि कोई भी शक्ति एक न्यायप्रिय इंसान की आत्मा को कैद नहीं कर सकती। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक व्यक्ति भी, अगर अपनी आत्मा की आवाज़ सुने, तो इतिहास बदल सकता है।