भारत में राजनीति और भ्रष्टाचार का रिश्ता हमेशा से गहरा रहा है, लेकिन 1996 में जो हुआ, उसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। 22 फरवरी 1996 भारतीय पुलिस ने भ्रष्टाचार के मामले में 14 राजनेताओं पर संगीन आरोप लगाए, जिसके कारण खुद प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव को पहले ही इस्तीफ़ा देना पड़ा था।
दरअसल बात साल 1993 की है। संसद में नरसिम्हा राव की सरकार मुश्किल में थी। उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। सरकार बचाने के लिए बहुमत जरूरी था, लेकिन कांग्रेस के पास उतने वोट नहीं थे। तभी सामने आया राजनीति का एक घिनौना चेहरा…झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के सांसदों को रिश्वत देकर उनके वोट खरीदे गए!
लोकसभा में जब वोटिंग हुई, तो राव सरकार ने जादुई आंकड़ा पार कर लिया। लेकिन सवाल उठने लगे कि कैसे? जवाब आया…सांसदों के बैंक खातों में अचानक लाखों-करोड़ों रुपये आ गए थे!
1996 में सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू की। एक-एक परत खुलती गई और पता चला कि सिर्फ जेएमएम ही नहीं, बल्कि कई अन्य सांसदों को भी खरीदा गया था। जांच के बाद 14 बड़े नेताओं पर केस दर्ज हुआ, जिनमें खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव और उनके करीबी सहयोगी बूटा सिंह सहित कई लोग शामिल थे।
पहली चार्जशीट अक्टूबर 1996 में दाखिल की गई थी, इसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसद शिबू सोरेन, साइमन मरांडी, शैलेंद्र महतो और सूरज मंडल के अलावा नरसिम्हा राव, सतीश शर्मा, बूटा सिंह को आरोपी बनाया था। जेएमएम सांसदों पर घूस लेने के आरोप लगाए गए थे। दिसंबर 1996 में दूसरी चार्जशीट में सीबीआई ने घूस की रकम की व्यवस्था करने वालों के नाम शामिल किए थे। इनमें वी राजेश्वर राव, कर्नाटक के तत्कालीन सीएम वीरप्पा मोइली और उनके मंत्री एन एम रेवन्ना समेत शराब कारोबारी रामलिंगा रेड्डी और एम थिमेगोडा को शामिल किया गया था।
इस रिश्वतकांड का खुलासा अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद के अंदर किया था, जब वह सदन के सामने शैलेंद्र महतो को लेकर आए, जिन्होंने स्वीकर किया था कि शिबू सोरेन समेत उनकी पार्टी के चार सांसदों ने अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट देने और कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के एवज में 50-50 लाख रुपये ती रिश्वत ली थी।
सीबीआई के पास बैंक ट्रांजैक्शनों के पूरे रिकॉर्ड थे, जिनसे साफ हो गया था कि सांसदों को पैसे देकर लोकतंत्र की हत्या की गई थी। अदालत ने 1996 में नरसिम्हा राव को दोषी ठहराया और तीन साल की कठोर सजा सुनाई, साथ ही जुर्माना भी लगाया गया। हालांकि, यह मामला यहीं खत्म नहीं हुआ। राव ने दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की, जहां 2002 में उन्हें सबूतों की कमी का हवाला देते हुए बरी कर दिया गया। यह फैसला एक मिसाल बन गया कि किस तरह सत्ता के खेल में सबूत तक गायब हो जाते हैं!
इसके बाद जनता को समझ आ गया कि नेता सिर्फ सत्ता के लिए खेल खेलते हैं। केस के बाद सांसदों और विधायकों को मिलने वाली कानूनी छूट पर सवाल उठे। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाया कि अब सांसदों को घूस लेने पर कोई इम्यूनिटी नहीं मिलेगी। इस घोटाले के बाद कांग्रेस पार्टी की छवि को भारी नुकसान हुआ, और 1996 के चुनावों में पार्टी को सत्ता से बाहर होना पड़ा।
आज उस मामले के 27 साल बाद भी चुनावी खरीद-फरोख्त और भ्रष्टाचार की कहानियां खत्म नहीं हुई हैं। 1996 का यह मामला सिर्फ इतिहास का एक पन्ना नहीं, बल्कि राजनीति का एक ऐसा सबक है, जो हमें बताता है कि सत्ता के लिए क्या-क्या दांव पर लगाया जा सकता है। आज भी जब संसद में बहुमत की गिनती होती है, तब यह सवाल उठता है कि कहीं कोई नया सौदा तो नहीं हो रहा?