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Reading: वही दिन, वही दास्तां : नेताजी का जन्म…पत्रों से सामने आता है उनका अनछुआ व्यक्तित्व!
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netaji subhas chandra - The Fourth
Fourth Special

वही दिन, वही दास्तां : नेताजी का जन्म…पत्रों से सामने आता है उनका अनछुआ व्यक्तित्व!

नेताजी का आध्यात्मिक जीवन उनके देशप्रेम से जुड़ा था।

Last updated: जनवरी 23, 2025 5:14 अपराह्न
By Saloni 4 महीना पहले
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7 Min Read
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इतिहास में कुछ ऐसे किरदार होते हैं जिनकी गहराई को मापना आसान नहीं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ऐसे ही एक विलक्षण व्यक्ति थे। उन्हें एक क्रांतिकारी, एक सैन्य नेता और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रेरणास्रोत के रूप में जाना जाता है। लेकिन उनके जीवन के कई अनछुए पहलू हैं, जो उनकी शख्सियत को और भी अद्वितीय बनाते हैं। अन्य नेताओं के महत्व की रक्षा के लिए भारत की स्वतंत्रता को आकार देने में उनकी महान सफलताओं और अद्वितीय योगदान को छिपाने का अक्सर प्रयास भारतीय इतिहास के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। खैर आज हम नेताजी के अलग पहलु की बात करेंगे।

नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक में हुआ था। उनके पिता जानकीनाथ बोस एक सम्मानित वकील थे। बचपन से ही सुभाष के भीतर असाधारण आत्मबल था। कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उन्होंने अंग्रेज़ी प्रोफेसर ओटेन के खिलाफ विद्रोह किया, क्योंकि प्रोफेसर ने भारतीय छात्रों को अपमानजनक भाषा में संबोधित किया था। यही पहला संकेत था कि सुभाष एक साधारण विद्यार्थी नहीं थे।

नेताजी के बारे में सोचते ही स्वाभाविक रूप से एक निडर नेता, भावना और अटूट देशभक्ति वाले व्यक्ति की छवि मन में आती है। हालाँकि, हममें से कोई नहीं जानता कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस में ये और कई अन्य आश्चर्यजनक क्षमताएँ कैसे आईं। उनके कुछ पुराने पत्रों को टटोला जाये तो उससे किसी को भी समझ आ जायेगा कि दार्शनिकता धर्म और आध्यात्मिकता में उनका कितना झुकाव है।

नेताजी जब भी अपनी मां, प्रभावती बोस को पत्र लिखते थे, तो वे इसकी शुरुआत “भगवान हमारे साथ रहें” से करते थे। वे उन्हें “पूज्य माता” कहकर संबोधित करते थे और “आपका समर्पित पुत्र” लिखकर हस्ताक्षर करते थे। दूसरे शब्दों में, वे हमेशा अपने जीवन में ईश्वर की उपस्थिति को महसूस करने का प्रयास करते थे और अपनी मां और बड़ों का सम्मान करते थे। इससे पता चलता है कि वे किस संस्कृति में पैदा हुए और पले-बढ़े और उन्होंने अपने जीवन में किस चीज को सबसे अधिक महत्व दिया।

उनके द्वारा लिखे पत्रों के कुछ अंशों से पता चलता है कि नेताजी सुभाष चंद्र वैदिक दर्शन में पारंगत थे। एक अन्य स्थान पर नेताजी सुभाष ने अपनी मां को पत्र लिखकर शाकाहारी बनने में असफल होने पर निराशा व्यक्त की तथा बताया कि कैसे किसी के जोर देने पर उन्हें अनिच्छा से मांसाहारी भोजन खाना पड़ा।

उन्होंने लिखा, “माँ, मुझे तुमसे कुछ कहना है। तुम्हें शायद पता ही होगा कि मैं शाकाहारी बनने के लिए बहुत उत्सुक हूँ। लेकिन कहीं लोग कुछ उल्टा-सीधा न कह दें या इसे अन्यथा न ले लें, इसलिए मैं अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाया हूँ। एक महीने पहले मैंने मछली के अलावा सभी मांसाहारी भोजन छोड़ दिया था। लेकिन आज नादादा ने मुझे ज़बरदस्ती थोड़ा मांस खाने को कहा। मैं क्या कर सकता था! मैं इसे खाने से खुद को रोक नहीं पाया, लेकिन बहुत अनिच्छा से।”

“मैं शाकाहारी बनना चाहता हूँ क्योंकि हमारे ऋषियों ने कहा है कि अहिंसा एक महान गुण है। केवल ऋषियों ने ही नहीं – बल्कि स्वयं भगवान ने भी ऐसा कहा है। भगवान की बनाई हुई चीज़ों को नष्ट करने का हमें क्या अधिकार है? क्या ऐसा करना बहुत बड़ा पाप नहीं है? जो लोग कहते हैं कि मछली न खाने से दृष्टि शक्ति कम हो जाती है, वे गलत हैं। हमारे ऋषि इतने अज्ञानी नहीं थे कि मछली खाने से लोगों में अंधापन हो सकता है, तो उसे खाने से मना करते। इस संबंध में आपकी क्या राय है? आपकी सहमति के बिना मुझे कुछ भी करने का मन नहीं करता। हम सब ठीक हैं। आप सभी को मेरा प्रणाम, आपके समर्पित पुत्र सुभाष।”

उनके पत्रों में, विशेष रूप से 1912 से 1921 के बीच लिखे गए पत्र में वे हमेशा इस बात को दर्शाते थे कि उनके जीवन में ईश्वर की उपस्थिति होनी चाहिए, और इसके साथ ही वे अपने परिवार और बड़ों का सम्मान भी करते थे। यह उनकी संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों को दर्शाता है, जिन्हें उन्होंने हमेशा अपने जीवन में सर्वोत्तम माना। नेताजी के पत्रों की कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियाँ इस प्रकार थीं –

“हम धन-दौलत के पीछे भागते हैं, पर कभी यह नहीं सोचते कि असली धनवान कौन है। जो व्यक्ति भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति से भरा है, वही असली धनवान है, और उसके सामने बड़े-बड़े राजा भी गरीब हैं। इस अमूल्य निधि को खोकर भी हम जीवित हैं, यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है! जीवन के प्रत्येक क्षण में हमारी परीक्षा हो रही है, पर हम अक्सर इसे महसूस नहीं करते।”

“हम ईश्वर और धर्म के परीक्षा काल से गुजर रहे हैं। शैक्षिक परीक्षाएँ अस्थायी हैं और उनका मूल्य कुछ समय के लिए है, लेकिन जिन परीक्षाओं से हम गुजर रहे हैं, वे अनंत काल तक हमारे साथ रहेंगी। एक व्यक्ति जो इस जीवन में खुद को पूरी तरह से ईश्वर के हवाले कर देता है, वह ही धन्य है।”

“हमें आशा है, क्योंकि भगवान दयालु हैं। उनके करुणा का कोई अंत नहीं है। इस पापमय युग में भी हम उनकी दया से उम्मीद कर सकते हैं।”… इन पंक्तियों से यह साफ जाहिर होता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस वैदिक दर्शन में गहरे विश्वास रखते थे, और उन्हें पता था कि श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान नारायण के रूप में पृथ्वी पर आए थे।

नेताजी का आध्यात्मिक जीवन उनके देशप्रेम से जुड़ा था, और वे हमेशा सही मार्ग पर चलने का प्रयास करते थे। उनके विचारों में देश के लिए एक नई दिशा देने के साथ-साथ ईश्वर के प्रति गहरी श्रद्धा और भक्ति भी थी।

यह पत्र और विचार न केवल नेताजी की धार्मिकता और आध्यात्मिकता को दर्शाते हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि वे किस प्रकार अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे थे, जो कि उस समय के उनके व्यक्तित्व को और भी दिलचस्प बनाता है।

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