कल रात ही मैंने शूजीत सरकार की फिल्म ‘I want to talk’ देखी… सच कहूँ तो मुझे इस फिल्म ने अंदर तक डरा दिया, लेकिन ये डर बेहद खूबसूरत था जिसने डराने के साथ – साथ मुझे जीवन में और ज्यादा जीने की इच्छा को एक बार फिर जगा दिया। अर्जुन सेन नाम के कैंसर सरवाइवर की ये कहानी बेहद प्रेरणादायक है। इस फिल्म की उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी होनी चाहिए थी…इस फिल्म के बारे मे मैं अलग से विस्तार से एक लेख लिखूँगा। फिल्म से जुड़े एक पॉडकास्ट मे मैं जब डायरेक्टर शूजीत सरकार को सुन रहा था उन्होंने ऐक्टर इरफ़ान खान का जिक्र करते हुए कहा था कि, वे इरफान से इस कदर प्रभावित थे, कि अभिषेक बच्चन स्टारर I Want To Talk एक्टर को उन्होंने ध्यान में रखकर बनाई है। वह बोले, ‘मैंने इरफान की मौत के बाद उन लोगों के लिए यह फिल्म बनाने का फैसला किया, जो ऐसी स्थितियों में मानसिक रूप से संघर्ष करते हैं। यह विशेष रूप से इरफान के बारे में नहीं है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य चुनौती का सामना करने वाले किसी भी व्यक्ति के बारे में है। जाहिर तौर पर, वे इरफान की मौत के सदमे से उबर नहीं पाए हैं जैसे करोड़ों दर्शक भी…इरफ़ान खान के इरफ़ान खान बनने के पीछे आज की तारीख बहुत अहम है। आज ही के दिन उनका जन्म हुआ था।
इरफान भारतीय सिनेमा का वह सितारा जो अपने आप में एक संपूर्ण स्कूल थे। अपनी अदाकारी, सहजता, और मानवीयता के लिए मशहूर, इरफान का सफ़र उतना ही संघर्षमय था जितना प्रेरणादायक। यह कहानी है उस अभिनेता की, जिसने छोटे क़स्बे से निकलकर बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक अपनी छाप छोड़ी, लेकिन यह सफ़र अधूरा सा रह गया।
इरफान का जन्म 7 जनवरी 1967 को राजस्थान के टोंक जिले में हुआ। उनका पूरा नाम साहबजादे इरफान अली ख़ान था। एक पठान परिवार में जन्मे इरफान के पिता एक व्यापारी थे और उनका कोटा में टायर का बिज़नेस था। लेकिन इरफान को बिज़नेस में कोई रुचि नहीं थी। उन्हें बचपन से ही अभिनय में रुचि थी।
इरफान ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) से थिएटर की पढ़ाई की। उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह आसानी से अपने सपनों को पूरा कर सकें। लेकिन इरफान ने हिम्मत नहीं हारी। दिल्ली से मुंबई का सफर और फिर टीवी सीरियल्स में छोटे-छोटे रोल करना, यह उनकी शुरुआत थी।
इरफान ने 1988 में मीरा नायर की फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ से बॉलीवुड में कदम रखा, लेकिन उनका रोल काट दिया गया। इसके बाद उन्होंने ‘चाणक्य,’ ‘भारत एक खोज,’ और ‘चंद्रकांता’ जैसे टीवी सीरियल्स में काम किया। लेकिन उनका असली सफर शुरू हुआ 2001 में जब असिफ कपाड़िया की फिल्म ‘द वॉरियर’ से उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली।
2003 में आई फिल्म ‘हासिल’ ने इरफान को हिंदी सिनेमा में अलग पहचान दिलाई। इसके बाद ‘मक़बूल,’ ‘रोग,’ ‘लंचबॉक्स,’ और ‘पान सिंह तोमर’ जैसी फिल्मों ने साबित कर दिया कि इरफान सिर्फ अभिनेता नहीं, एक संस्था हैं। उनकी हर फिल्म एक मास्टरक्लास होती थी।
इरफान उन चंद भारतीय अभिनेताओं में से थे जिन्होंने हॉलीवुड में अपनी जगह बनाई। उन्होंने ‘स्लमडॉग मिलियनेयर,’ ‘लाइफ ऑफ पाई,’ ‘द अमेजिंग स्पाइडरमैन,’ ‘जुरासिक वर्ल्ड,’ और ‘इन्फर्नो’ जैसी फिल्मों में काम किया। खास बात यह थी कि इरफान ने कभी हॉलीवुड में अपनी भारतीय पहचान को खोने नहीं दिया।
इरफान की निजी जिंदगी भी उतनी ही सरल और प्रेरणादायक थी। उन्होंने 1995 में सुतपा सिकदर से शादी की, जो उनकी NSD की क्लासमेट थीं। उनके दो बेटे हैं, बाबिल और अयान। इरफान अपने परिवार के बेहद करीब थे और उन्हें अपनी सफलता का श्रेय हमेशा अपने परिवार को दिया।
2018 में इरफान को न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर होने की खबर ने पूरे देश को चौंका दिया। वह इलाज के लिए लंदन गए, लेकिन 2020 में बीमारी के कारण उनका निधन हो गया। 29 अप्रैल 2020 को इरफान इस दुनिया को अलविदा कह गए।
उनकी अदाकारी ने हमें यह सिखाया कि कहानी कैसे कही जाती है और कैसे सुनी जाती है। उनकी फिल्में और उनका जीवन यह संदेश देता है कि सफलता संघर्ष के बाद ही मिलती है। आज मिड लाइफ क्राइसिस से जुझ रहा हर व्यक्ती उनके रोग फिल्म के उस मोनोलॉग को बार बार सुनता है जिसमें वे बेहद असल तरीके से कहते हैं, “मन ऊब गया है। वही शोर, वही आवाजे। शिकायत नहीं है। अजीब सा एहसास है मन में, अजीब… जिस रोज नया दिन निकलता है। मैं वही पुराना हूं, दुनिया वही पुरानी हैं। वैसे ही चली जा रही है। मुझे लगा जो ये जिंदगी की गाड़ी चल रही है।इसकी चैन मै खीचता हूं और उतर जाता हूं!”
इरफान की कमी को कोई पूरा नहीं कर सकता। उनकी आवाज, उनकी आंखों की गहराई, और उनका अभिनय सदा हमारे दिलों में जीवित रहेगा। वह सितारा जो चला गया, लेकिन उसका नूर हमेशा हमारे दिलों में रहेगा। इरफान ख़ान, आप हमें याद आते रहेंगे या आपके ही हासिल फिल्म के डायलॉग को दोहराऊ तो… तुमको याद रखेंगे गुरु!