नई दिल्ली। सरकारी एजेंसियों की सहायता से भारतीय दवा कंपनियों ने एक साल में चार दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए दवाएं विकसित करने में कामयाब हुई हैं। इससे इलाज का खर्च सौ गुना तक कम हो गया है। इनमें से ज्यादातर बीमारियां बच्चों में होने वाली बीमारी है। उदाहरण के लिए, टाइरोसेमिया टाइप-1 के इलाज के लिए 2.2 करोड़ से 6.5 करोड़ वार्षिक खर्च होता था, लेकिन अब वही खर्च घटकर 2.5 लाख तक हो गया है। यह बच्चों में होने वाली वह बीमारी है, जिसका इलाज नहीं किया जाए तो करीबन 10 वर्ष की उम्र तक बच्चों की मौत हो जाती है।
इन बीमारियों का भी खर्च भी कम हुआ
तीन अन्य दुर्लभ बीमारियों में गौचर भी शामिल है, जिसके कारण यकृत बढऩा और हड्डियों में दर्द होता है। गौचर के इलाज के लिए प्रति वर्ष 1.8 से 3.6 करोड़ रुपये खर्च बैठता था, लेकिन अब यही खर्च घटकर 3.6 लाख रुपये तक हो गया है। ऐसे ही दुर्लभ बीमारियों में विल्सन भी है, जो यकृत में तांबा जमा होने और अन्य मनोरोग संबंधी लक्षणों के कारण होता है। इसके इलाज में प्रति वर्ष ट्रिनटीन कैप्सूल के साथ 2.2 करोड़ रुपये तक खर्च होता था, जो कि अब घटकर 2.2 लाख रुपये हो चुका है। वहीं ड्रावेट या लेनॉक्स के इलाज के लिए पहले प्रति वर्ष सात से 34 लाख रुपये खर्च होता था, लेकिन अब इसके इलाज का खर्च 1.5 लाख रुपये हो गया है।
करोड़ों मरीज को दुर्लभ बीमारी
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में 8.4 करोड़ से 10 करोड़ तक मरीज दुर्लभ बीमारी का शिकार होते हैं। उनमें से 80 फीसदी अनुवांशिक होते हैं, जिसका मतलब इसका इलाज कराना जरूरी है। एक साल पहले बायोफोर इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, लॉरस लैब्स लिमिटेड, एमएसएन फार्मास्यूटिकल और एकुम्स ड्रग्स एंड फार्मास्यूटिक्स जैसी कंपनियों ने 13 दुर्लभ बीमारियों की दवाइयों पर काम करना शुरू किया था। उनमें से चार के इलाज के लिए दवाइयां विकसित कर ली गई हैं, वहीं बाकी के बीमारियों के लिए जल्द ही दवाएं विकसित होने का अनुमान लगाया जा रहा है।