चुनावी बिगुल बज गया है, प्रत्याशियों की धड़कने तेज़ हैं। सूरत ए हाल ये है कि साम, दाम, दंड, भेद! जिससे जो बन पड़ रहा है, वो वैसा कर गुजरने के लिये तैयार है। एक बार फिर से देश के लोग अपने प्रत्याशी को चुनने के लिए बिल्कुल तैयार हैं। राजनीतिक पार्टियां देश की सत्ता पाने के लिए रणनीति बनाने में जुट गई हैं। पुराने समय मे बैलट पेपर के जरिए वोटिंग होती थी, अब ईवीएम के जरिए मतदान हो रहा है। टेक्नोलॉजी में विस्तार की वजह से वोटिंग के तरीके बदले हैं। 2004 से हर लोकसभा चुनाव EVM के जरिये हो रहा है। आज के समय में चुनाव आयोग के लिए निष्पक्ष और सुचारु ढंग से चुनाव कराना महंगा हो गया है। क्योंकि एक बड़ा फंड EVM खरीदने और उसके रख-रखाव पर जाता है। इस बार 18वीं लोकसभा के लिए लोग मतदान करेंगे। सोशल मीडिया से लेकर न्यूज चैनल और अखबारों तक चुनावों की खबरें छाई हुई हैं। इलेक्शन के समय में चुनाव प्रचार बहुत अहम भूमिका निभाता है। समय समय पर कुछ ट्रेंड उभर के आते है। जो समय बीतने के साथ गायब भी हो जाते हैं। इस लेख मे हम बात करेंगे कि कैसे साल दर साल चुनावों के प्रचार प्रसार के तरीकों मे बदलाव आया है।
बात की जाए भारत के पहले लोकसभा चुनाव की तो वह साल 1951 में हुए थे । साल 1951 में पहला लोकसभा का चुनावी कार्यक्रम तो आयोजित किया गया था। पर इसमें कुछ बड़ी चुनौतियां भी सामने आईं थी। उस समय 85 प्रतिशत लोग अशिक्षित थे। टीवी नहीं थे। रेडियो की संख्या भी बहुत कम थी। संचार का कोई भी ऐसा माध्यम नहीं था जो लोगों तक सीधी अपनी पहुंच रखता हो। इसीलिए उस दौर मे पार्टियों और चुनाव प्रचार करने के लिए चुनावी जनसभा और नुक्कड़ सभाओं की मदद लेते थे। नुक्कड़ सभाओं के लिए बाजार के आसपास के इलाकों को देखा जाता था। इस चुनाव में लोकसभा की 489 सीटों के लिए वोट डाले गए थे। इसमें कांग्रेस को 364 सीटें मिली थीं, जबकि जनसंघ को तब केवल 3 सीटों से संतोष करना पड़ा था।
अगले पांच चुनावों मे धीरे-धीरे प्रचार करने का ट्रेंड बदल गया है। चुनावों के दौरान सड़कों से लेकर गली-मोहल्लों में कार, रिक्शा और ऑटो समेत अन्य गाड़ियों में लाउडस्पीकर लगाकर। अपने अपने पार्टी के झंडे लिये रैलियां निकालने लगे। पोस्टरों पर चुनावी नारों को जगह दी जाने लगी। चौथा चुनाव साल 1967 में 520 सीटों के लिए कराया गया था, जिसमें कांग्रेस आगे तो रही पर उसकी सीटें तीन सौ के नीचे आ गईं और उसे 283 सीटों पर जीत मिली थी। धीरे-धीरे आगे बढ़ रही जनसंघ को 35 सीटों पर जीत हासिल हुई। वहीं, वामपंथी दलों में सीपीआई को 23 और सीपीएम को 19 सीटों पर विजय मिली थी।कांग्रेस को साल 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने बुरी तरह पटखनी देकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इसमें कांग्रेस को केवल 154 सीटें मिलीं, जबकि जनता पार्टी ने 542 में से 298 सीटों पर जीत हासिल की थी। हालांकि, 1980 में हुए अगले ही चुनाव में कांग्रेस फिर सत्ता में आ गई और राजनैतिक समीकरणों मे बदलाव आने लगे।
1984 में हुए चुनाव में कांग्रेस को आम लोगों की ऐसी सहानुभूति मिली की उसने जीत दर्ज करते हुए 415 सीटें हासिल कर लीं। इंदिरा की हत्या के बाद कांग्रेस को राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी जीत मिली। 1996 में हुए ग्यारहवें लोकसभा चुनाव के दौरान पहली बार भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और उसे 161 सीटें मिलीं। अगला चुनाव 1998 में हुआ तो भी भाजपा ही सबसे बड़ी पार्टी थी। उसे 182, कांग्रेस को 141 सीटें मिलीं। 13वें लोकसभा चुनाव में भी भाजपा की स्थिति बरकरार रही और उसे 1999 में 182 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस 114 सीटों पर सिमट गई थी। 2004 में कांग्रेस की स्थिति थोड़ी सुधरी और उसने 145 सीटें हासिल कीं, जबकि भाजपा 138 सीटों पर ही जीत सकी थी। 2009 के चुनाव में कांग्रेस को 206 और भाजपा को 116 सीटें मिली थीं।
2014 में लोकसभा का 16वां आम चुनाव शुरू हुआ तो नरेंद्र मोदी की लहर बन चुकी थी। ये ट्रेंड 2019 मे भी जारी रहा। अब के दौर मे राजनीतिक पार्टियां और प्रत्याशी सोशल मीडिया के उन तमाम प्लेटफॉर्म का उपयोग करते हैं, जिनकी पहुंच आम आदमी तक बहुत ही आराम और आसानी से होती है। इसके लिए इंस्टाग्राम, यू ट्यूब, एक्स, फेसबुक, एमएमएस, वाट्सऐप, विशेष प्रचार के लिए बनाए जाने वाले ऐप, टीवी, पहले से रिकॉर्ड संदेश, एआई के जरिए प्रचार, स्नैपचैट, ई-मेल, वेबसाइट, सीरियल समेत न्यूज या अन्य किसी कार्यक्रम के बीच में दिए जाने वाले चुनावी विज्ञापन के अलावा सोशल मीडिया के तमाम माध्यम से चुनावी प्रचार किया जाता है।