भारत की पहचान उसकी विविधता में है, लेकिन हाल के दिनों में भाषाओं को लेकर बढ़ते विवादों ने एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है—क्या हम प्रगति कर रहे हैं या पीछे जा रहे हैं? महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद से लेकर तमिलनाडु में हिंदी विरोध तक, भाषाओं को लेकर बहस तेज हो गई है।
महाराष्ट्र-कर्नाटक बस सेवा बंद: भाषा की लड़ाई या राजनीतिक चाल?
महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच लंबे समय से सीमावर्ती इलाकों को लेकर विवाद चल रहा है, लेकिन हाल ही में इस विवाद ने भाषाई रूप ले लिया। महाराष्ट्र में कुछ लोगों ने कन्नड़ भाषा के खिलाफ नाराजगी जताई, तो वहीं कर्नाटक में मराठी भाषियों को निशाना बनाया जाने लगा। इस बढ़ते तनाव के चलते कर्नाटक सरकार ने महाराष्ट्र के लिए बस सेवाएँ निलंबित कर दीं।
यह फैसला हजारों यात्रियों के लिए परेशानी का सबब बन गया, जो रोज़ाना इन बस सेवाओं पर निर्भर थे।
तमिलनाडु में हिंदी विरोध: स्टालिन का बयान और बढ़ती नाराजगी
तमिलनाडु में हिंदी भाषा को लेकर लंबे समय से विवाद चला आ रहा है। हाल ही में मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने कहा कि हिंदी को जबरन थोपने की कोशिश की जा रही है, जिससे अन्य भारतीय भाषाएँ खतरे में पड़ सकती हैं।
तमिलनाडु में पहले भी हिंदी विरोधी आंदोलन हो चुके हैं और अब एक बार फिर यह बहस तेज हो गई है। लोग साइनबोर्ड और पोस्टर्स पर लिखे अंग्रेजी शब्दों को भी काले रंग से ढंक रहे हैं, यह जताने के लिए कि वे अपनी मातृभाषा के अलावा किसी और भाषा को स्वीकार नहीं करेंगे।
भाषाई विवाद: गर्व या कट्टरता?
भारत में हर क्षेत्र की अपनी भाषा और संस्कृति है और यह देश की ताकत है। लेकिन जब भाषाओं को राजनीति से जोड़ा जाता है, तो यह ताकत कमजोरी में बदलने लगती है।
भाषा किसी की पहचान होती है, लेकिन जब भाषा को ही भेदभाव और टकराव का जरिया बना दिया जाता है, तो यह एक गंभीर चिंता का विषय बन जाता है। क्या भाषाई गर्व के नाम पर हो रहे ये विरोध जायज़ हैं, या हम अनजाने में खुद को ही नुकसान पहुँचा रहे हैं?
यह सवाल अब उठ रहा है—क्या भाषा का यह युद्ध हमें एक नए भारत की ओर ले जा रहा है?